आज हम उस महान शासक को याद कर रहे हैं, जिन्होंने पंजाब की धरती पर एकता का सूत्रपात किया और अपने जीते जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के करीब भी फटकने नहीं दिया। हम बात कर रहे हैं *महाराजा रणजीत सिंह* की, जिन्हें 'शेर-ए-पंजाब' के नाम से जाना जाता है। वे सहस्राब्दी में पहले ऐसे भारतीय शासक थे, जिन्होंने आक्रमण की लहर को भारत के पारंपरिक हमलावरों, यानी पश्तूनों (अफगानों) की मातृभूमि तक मोड़ दिया था। उनका विशाल साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में खैबर दर्रे से लेकर पूर्व में सतलुज नदी तक और भारतीय उपमहाद्वीप की उत्तरी सीमा पर कश्मीर क्षेत्र से लेकर दक्षिण में थार रेगिस्तान तक फैला हुआ था। भले ही वे स्वयं अशिक्षित थे, लेकिन उनमें लोगों और घटनाओं को परखने की अद्भुत क्षमता थी। वे धार्मिक कट्टरता से कोसों दूर थे और अपने विरोधियों के प्रति भी नरम व्यवहार रखते थे।
प्रारंभिक जीवन और उदय
रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर, 1780 को बुदरूखां या गुजरांवाला (जो अब पाकिस्तान में है) में एक जाट सिख परिवार में महाराजा महा सिंह के इकलौते पुत्र के रूप में हुआ था। उस समय पंजाब पर सिख और अफगानों का शासन था, जिन्होंने पूरे इलाके को कई 'मिसलों' में बांट रखा था। रणजीत के पिता, महा सिंह, सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे, जिसका मुख्यालय पश्चिमी पंजाब के गुजरांवाला में था। छोटी उम्र में चेचक के कारण महाराजा रणजीत सिंह की एक आँख की रोशनी चली गई थी। 1792 में, जब वे मात्र 12 वर्ष के थे, तब उनके पिता का निधन हो गया और राजपाट का सारा भार उनके युवा कंधों पर आ गया। 12 अप्रैल, 1801 को रणजीत सिंह ने 'महाराजा' की उपाधि धारण की। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और 1802 में अमृतसर की ओर रुख किया। 15 साल की उम्र में उन्होंने कन्हैया के सरदार की बेटी से विवाह किया। दूरदर्शी और सांवले रंग के नाटे कद के रणजीत सिंह में उत्कृष्ट सैनिक नेतृत्व के गुण विद्यमान थे। जब तक तेजस्वी रणजीत सिंह जीवित रहे, सभी मिसलें उनके अधीन रहीं।
सैन्य विजय और साम्राज्य विस्तार
महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयाँ लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ते हुए पेशावर सहित पश्तून क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। यह पहला अवसर था जब पश्तूनों पर किसी गैर-मुस्लिम ने शासन किया। इसके बाद उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने गुरुओं और सिख नेताओं की श्रद्धेय पंक्ति के नाम पर सिक्के चलवाए। एक साल बाद उन्होंने धार्मिक नगर अमृतसर पर कब्जा कर लिया, जो उत्तर भारत का सबसे महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र बन गया। इसके बाद, उन्होंने पंजाब में फैली छोटी सिख और पश्तून रियासतों को अपने अधीन करना शुरू कर दिया।
उनकी देखरेख में पंजाब एक अत्यंत शक्तिशाली प्रांत बन गया। उनकी ताकतवर सेना ने लंबे समय तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक समय ऐसा भी आया, जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा प्रांत था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था। महाराजा रणजीत स्वयं निरक्षर थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला को भरपूर प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पंजाब में कानून एवं व्यवस्था स्थापित की और अपने शासनकाल में कभी किसी को मृत्युदंड नहीं दिया। उन्होंने जनता से वसूले जाने वाले जजिया कर पर भी रोक लगाई।
धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक योगदान
उन्होंने अमृतसर के हरमंदिर साहिब में संगमरमर और सोने का काम करवाकर उसका पुनरुद्धार कराया। तभी से इसे 'स्वर्ण मंदिर' कहा जाने लगा। मंदिरों को मन भर सोना दान करने के लिए वे प्रसिद्ध थे। 1835 में महाराजा रणजीत सिंह ने काशी विश्वनाथ मंदिर के ऊपरी भाग पर सोने का स्वर्ण पत्र जड़वाया। दिसंबर 1809 में वे लघु हिमालय (जो अब पश्चिमी हिमाचल प्रदेश राज्य है) में कांगड़ा के राजा संसार चंद की सहायता के लिए गए और आगे बढ़ रहे घुरका बल को हराकर कांगड़ा को अपने कब्जे में कर लिया। 1812 तक पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह का एकछत्र राज्य स्थापित हो गया था। उन्होंने दस वर्षों के भीतर मुल्तान, पेशावर और कश्मीर तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया।
रणजीत सिंह की सभी विजयें सिखों, मुसलमानों और हिंदुओं से बनी पंजाबी सेनाओं द्वारा हासिल की गई थीं। उनके सेनापति भी विभिन्न धार्मिक समुदायों से आते थे। 1820 में रणजीत सिंह ने अपनी सेना का आधुनिकीकरण करना शुरू किया, जिसके लिए उन्होंने पैदल सेना और तोपखाने को प्रशिक्षित करने हेतु यूरोपीय अधिकारियों का उपयोग किया।
अंतिम दिन और विरासत
महाराजा रणजीत सिंह के खजाने की शान बहुमूल्य हीरा कोहिनूर था। लगातार लड़ाइयाँ लड़ते हुए उदार हृदय रणजीत सिंह का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था। 1838 में उन्हें लकवे का दौरा पड़ा, और बहुत उपचार के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। 27 जून, 1839 को उनका निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई, जो आज भी कायम है। महाराजा रणजीत सिंह का शासनकाल भारतीय इतिहास में एक स्वर्ण युग के रूप में दर्ज है, जिसने एक शक्तिशाली और धर्मनिरपेक्ष साम्राज्य की नींव रखी।