भारत पर 200 सालों तक ब्रिटिश हुकूमत ने राज किया। भारत के लोगों को अंग्रेजों से आजाद कराने में भारत की महिला स्वतंत्रता सेनानियों की भी उतनी ही भूमिका थी जितना कि यहां के पुरुषों का। चाहे वह रानी लक्ष्मीबाई हो, सरोजनी नायडू हो, झलकारी बाई हो। सभी ने क्रूर अंग्रेजों के सामने ना झुककर अपनी बहादुरी का परिचय दिया। लेकिन फिर भी आज़ादी की लड़ाई में शामिल कुछ ऐसी महिलाएं जिन्होंने देश की आजादी के खातिर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया, लेकिन इनकी शहादत गुमनाम रही। देश की आज़ादी के बाद उनके योगदान और नाम को भुला दिया गया। उन्हीं में से एक हैं, तारा रानी श्रीवास्तव।
तारा रानी श्रीवास्तव बहुत पढ़ी-लिखी, डिग्री-धारी नहीं थी | बल्कि पितृसत्ता समाज के एक हाशिये से संबंध रखने वाली आम महिला थी। तारा बाई श्रीवास्तव का विवाह कम उम्र में ही फुलेंदू बाबू से हो गई थी। फुलेंदू बाबू स्वतंत्रता सेनानी थे। अपने पति की तरह ही तारा रानी के ह्रदय में भी अपार देश-प्रेम था।
फुलेंदू बाबू से विवाह के बाद तारा रानी के मन में उठ रही आज़ादी की ज्वाला पूरी तरह धधक उठी. उस दौर में विवाहित महिलाओं पर बहुत सी पाबंदियां थी. समाज का एक तबका तब भी महिलाओं को चारदीवारी में कैद रखना चाहता था. फुलेंदू बाबा की सोच अलग थी. इसी वजह से तारा रानी पर वो सब नियम और कायदे लागू नहीं हुए. तारा रानी ने न सिर्फ़ स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया बल्कि अन्य महिलाओं को भी इकट्ठा किया, प्रोत्साहित किया. गांधी जी की पुकार को तारा रानी और फुलेंदू बाबू ने जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश की.
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, फुलेंदु बाबू, गांधीजी के आह्वान पर, पुरुषों और महिलाओं की भारी भीड़ को एकत्रित करने में सफल रहे, जो सीवान पुलिस स्टेशन पर राष्ट्रीय ध्वजारोहण के साक्षी बने। नवविवाहित जोड़ा, तारा रानी और फुलेंदु, सबसे आगे खड़े होकर अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध नारे लगा रहे थे। एकत्र भीड़ को हटाने के लिए, पुलिस ने लाठीचार्ज का सहारा लिया तथा गोलियाँ चलाईं। उसके बाद हुई अफ़रा-तफ़री में, फुलेंदु पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए। इसके बावजूद तारा रानी डटी रहीं। उन्होंने सोचा की पति को गोली लगने पर वह अपना कदम पीछे कर लेगी , लेकिन तारा ने ऐसा नहीं किया वह अपने पति की तरफ दौड़ी और उनके घाव को पट्टियों से बांध दिया |
फिर उन्होंने पुलिस स्टेशन तक प्रस्थान जारी रखा | जब वे ज़ख़्मी पति के पास लौटकर आई तब तक उनके पति शहीद हो चुके थे.| 15 अगस्त 1942 को उनके पति के देश के लिए बलिदान के सम्मान में छपरा जिले में एक प्रार्थना सभा आयोजित की गई. पति के मृत्यु के बावजूद वह 15 अगस्त 1947 स्वतंत्रता और विभाजन तक स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रहीं.
इस बात में कोई शक नहीं है कि उन्होंने देश की आज़ादी के लिए, कई व्यक्तिगत बाधाओं के बावजूद भी लड़ाई नहीं छोड़ी। हमें इन चेहरों को गुमनामी से बाहर निकालकर, अपने स्वतंत्रता आंदोलन के महत्वपूर्ण स्तंभों के रूप में सम्मानित करना चाहिए।