चितरंजन दास, जिन्हें प्यार से 'देशबंधु' (देश का मित्र) कहा जाता है, का जीवन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक मील का पत्थर है। उनका जन्म 5 नवंबर, 1870 को कलकत्ता में हुआ था। वे तत्कालीन ढाका जिले के तेलीरबाग के एक उच्च मध्यम वर्गीय वैद्य परिवार से थे। उनके पिता भुबन मोहन दास कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रतिष्ठित वकील थे, जो ब्रह्मो समाज के एक उत्साही सदस्य होने के साथ-साथ अपनी बौद्धिक और पत्रकारिता गतिविधियों के लिए भी जाने जाते थे। दास के देशभक्ति के विचार उनके पिता से बहुत प्रभावित थे।
उन्होंने अपने सिद्धांतों पर ही अडिग रहते हुए देश की सेवा की, जो अपने आप में एक मिसाल है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे लोग उन्हें गुरुतुल्य मानते थे। वे एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी, बहुत ही काबिल और मशहूर वकील, पत्रकार, और राजनीतिज्ञ होने के साथ ही कवि और बहुत ही अच्छे इंसान के रूप में जाने जाते थे। 16 जून को उनकी पुण्यतिथि है। वे महात्मा गांधी के विरोध में खड़े होने से भी नहीं हिचकिचाए, लेकिन उनके निधन पर गांधी जी ने उनकी खूब तारीफ की थी। सभी मानते थे कि वे सच्चे अर्थों में देशबंधु थे।
चितरंजन दास ने 1890 में कोलकाता प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की और आईसीएस की तैयारी भी की, पर वकालत को ही अपना पेशा चुना। उन्होंने लंदन में वकालत की पढ़ाई की और स्वदेश लौटकर कोलकाता उच्च न्यायालय में ही वकालत शुरू कर दी थी। शुरुआत में वे असफल रहे, लेकिन जब उनकी वकालत चली तो खूब चल निकली और धीरे-धीरे वे प्रसिद्ध भी होने लगे।
देशबंधु एक संवेदनशील और देशप्रेमी व्यक्तित्व के वकील थे। उन्होंने कई भारतीयों का मुकदमा लड़ा, जिन पर राजनैतिक अपराधों का आरोप था। उन्होंने 1908 में अलीपुर बम मामले में अरविंद घोष की पैरवी की थी और उसके बाद मानिकतला बाग षड्यंत्र ने उन्हें कोलकाता उच्च न्यायालय में बड़ा सम्मान दिलाया। इन मुकदमों के कारण उनकी शोहरत देशभर में फैल गई। क्रांतिकारियों और राष्ट्रवादियों के मुकदमों में वे अपना पारिश्रमिक नहीं लेते थे।
चितरंजन दास के गांधी जी से संबंध कुछ अलग ही थे। असहयोग आंदोलन के दौरान गांधी जी से प्रभावित हुए और उन्होंने वकालत छोड़कर अपनी सारी संपत्ति मेडिकल कॉलेज को दान कर दी, जिसके बाद से वे देशबंधु कहे जाने लगे। गांधी जी के प्रभाव से राजनीति में आने के बाद उन्होंने अपना विलासी जीवन छोड़ दिया और कांग्रेस का प्रचार करने के लिए पूरे देश का भ्रमण करने निकल पड़े।
असहयोग आंदोलन में देशबंधु अपनी पत्नी सहित गिरफ्तार हुए और छह महीने के लिए जेल गए, लेकिन चौरी चौरा कांड के बाद गांधी जी से मतभेद के चलते उन्होंने बापू का विरोध भी किया था। दिसंबर 1922 में गया अधिवेशन में एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष बने, पर उनके असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव नामंजूर होने से उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया और मोतीलाल नेहरू के साथ कांग्रेस में ही स्वराज पार्टी की स्थापना की। इसके बाद देशबंधु ने स्थानीय चुनावों में जीत हासिल कर लोगों और अंग्रेजों दोनों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।
1925 में उनका स्वास्थ्य बिगड़ा और वे स्वास्थ्य लाभ के लिए दार्जिलिंग चले गए, लेकिन उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया और 16 जून 1925 को तेज बुखार के कारण उनका निधन हो गया। देशभर में उनके निधन से शोक की लहर दौड़ गई। कोलकाता में उनकी अंतिम यात्रा का नेतृत्व खुद महात्मा गांधी ने किया। उन्होंने कहा, “देशबंधु एक महान आत्मा थे, उन्होंने एक ही सपना देखा था… आजाद भारत का सपना… उनके दिल में हिंदू और मुसलमानों के बीच कोई अंतर नहीं था।”
चित्तरंजन दास से जुड़े कुछ रोचक तथ्य इस प्रकार हैं:
1. उन्हें आम तौर पर सम्मानसूचक देशबंधु के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिसका अर्थ है "राष्ट्र का मित्र।"
2. वे अनेक साहित्यिक संस्थाओं से घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे तथा उन्होंने कविताएँ, अनेक लेख और निबंध लिखे।
3. सी.आर. दास ने बसंती देवी से विवाह किया और उनके तीन बच्चे हुए - अपर्णा देवी, चिररंजन दास और कल्याणी देवी।
4. वे असहयोग आंदोलन के दौरान बंगाल में अग्रणी व्यक्ति थे और उन्होंने ब्रिटिश निर्मित कपड़ों पर प्रतिबंध लगाने की पहल की थी। उन्होंने अपने यूरोपीय कपड़ों को जलाकर और खादी के कारण का समर्थन करके एक मिसाल कायम की।
5. स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्होंने अपनी सारी विलासिता त्याग दी।
6. उन्होंने फॉरवर्ड नामक एक समाचार पत्र निकाला और बाद में भारत में विभिन्न ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों के प्रति अपने समर्थन के तहत इसका नाम बदलकर लिबर्टी रख दिया।
7. जब कलकत्ता नगर निगम का गठन हुआ तो वे उसके पहले महापौर बने।
8. अत्यधिक काम के कारण चित्तरंजन का स्वास्थ्य गिरने लगा। 16 जून 1925 को उनकी मृत्यु हो गई। कलकत्ता में उनके अंतिम संस्कार का नेतृत्व गांधी जी ने किया और कहा, "देशबंधु महानतम व्यक्तियों में से एक थे। उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के बारे में ही सपना देखा और बात की, किसी और चीज़ के बारे में नहीं। उनके दिल में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कोई अंतर नहीं था और मैं अंग्रेजों को भी बताना चाहूंगा कि उनके मन में उनके लिए कोई दुर्भावना नहीं थी।"
9. चित्तरंजन की विरासत को उनके आज्ञाकारी शिष्य और अनुयायी सुभाष चंद्र बोस ने आगे बढ़ाया।